सॉफ्टवेयर टेस्टिंग
किसी भी प्रोडक्ट को मार्केट में लॉन्च करने से पहले उसको ठीक ढंग से टेस्ट करना पड़ता है, ताकि बाद में कोई परेशानी न हो। जब बात सॉफ्टवेयर की हो तो टेस्टिंग का महत्व और बढ़ जाता है। इसकी वजह यह है कि सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल तमाम उन जगहों पर किया जाता है, जहां इसमें कोई छोटी-सी भी गड़बड़ी बड़ा नुकसान कर सकती है।
सॉफ्टवेयर टेस्टिंग के द्वारा किसी सॉफ्टवेयर को एरर-फ्री बनाया जाता है। साथ ही इस बात की जांच भी की जाती है कि विकसित किया गया सॉफ्टवेयर जरूरत के अनुसार खरा है या नहीं। यह एक सतत् प्रक्रिया है, जो सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट के विभिन्न स्तरों पर की जाती है। सबसे पहले सॉफ्टवेयर के छोटे-छोटे मॉडूल यानी यूनिट को अलग-अलग टेस्ट किया जाता है और फिर सबको जोड़कर इंटिग्रेटेड टेस्टिंग होती है। यह दो प्रकार से होती है- व्हाइट बॉक्स टेस्टिंग (White Box Testing): इसे ग्लास बॉक्स टेस्टिंग भी कहते हैं। इसके द्वारा सॉफ्टवेयर के इंटरनल स्ट्रक्चर को टेस्ट किया जाता है, ताकि किसी प्रकार के एरर को दूर किया जा सके। सॉफ्टवेयर प्रोग्राम कोड, लूप आदि को यहां टेस्ट किया जाता है। ब्लैक बॉक्स टेस्टिंग : इस विधि द्वारा सॉफ्टवेयर के फंक्शनल रिक्वॉयरमेंट पर फोकस किया जाता है। इसके तहत दिए गए इनपुट के आधार पर सॉफ्टवेयर का टेस्ट यह पता लगाने के लिए होता है कि सही आउटपुट जनरेट हो रहा है या नहीं।
अक्सर हमें यह सुनने को मिलता है कि किसी सॉफ्टवेयर कंपनी ने अपने सॉफ्टवेयर का बीटा वर्जन रिलीज किया है। क्या आप जानते हैं कि बीटा वर्जन क्या है? दरअसल, यह भी एक टेस्टिंग प्रोसेस है, जहां सॉफ्टवेयर को यूजर्स के लिए लॉन्च कर दिया जाता है और इस तरह वास्तविक माहौल में सॉफ्टवेयर की टेस्टिंग होती है। फिर यूजर्स द्वारा बताई गई समस्याओं के आधार पर सॉफ्टवेयर की खामियों को दूर किया जाता है। यही बीटा टेस्टिंग है। इसी तरह अल्फा टेस्टिंग भी की जाती है, जिसके तहत डेवलपर की साइट पर ही उस सॉफ्टवेयर को कस्टमर द्वार टेस्ट किया जाता है।
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